सियासी हवा का रुख भांपने में माहिर कई दिग्गज राजनेताओं की खलेगी कमी

(प्रेम कुमार से )

पटना:  सियासी हवा का रुख भांपने में माहिर और मतदाताओं को अपने पक्ष में गोलबंद करने वाले कई दिग्गज राजनेताओं की कमी इस बार के लोकसभा चुनाव में खलेगी।

बिहार में लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर चुनावी रणभेरी बज चुकी है। चुनाव को लेकर राजनीतिक दल चुनावी मैदान सजा तो रहे हैं लेकिन, इस बार राजनीति के धुरंधरों कमी अखर रही है। कई दिग्गज राजनेता इस बार के लोकसभा चुनाव में नहीं दिखेंगे। इनके नाम और काम पर वोट की फसल भले काटी जाएगी, लेकिन मतदाताओं को इनकी कमी खलेगी। भारतीय राजनीति के दिग्गज दलित नेता और लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के संस्थापक राम विलास पासवान, समाजवादी राजनीति के जरिए जनता के बीच अलग पहचान बनाने वाले शरद यादव, दिग्गज जमीनी नेता, राजनीति के ‘अजातशत्रु’ कहे जाने वाले रघुवंश बाबू के नाम से मशहूर रघुवंश प्रसाद सिंह और बिहार की राजनीति के भीष्म दिग्गज कांग्रेसी नेता सदानंद सिंह सियासी हवा का रुख मोड़ने का माद्दा रखते थे। ये दिग्गज राजनेता अपनी रणनीति से सियासी गणित बनाते बिगाड़ते थे। इस बार चुनावी रण में इन राजनीतिक धुरंधरों की कमी खलेगी।

बिहार की सियासत के बेताज बादशाह कहे जाने वाले दलित नेता रामविलास पासवान ने वर्ष 1977 के लोकसभा चुनाव में हाजीपुर सीट पर भारतीय लोक दल (बीएलडी) के टिकट पर चुनाव लड़ा और कांग्रेस उम्मीदवार बालेश्वर राम को सवा चार लाख से ज़्यादा मतों से हराकर पहली बार लोकसभा में पैर रखा था। श्री पासवान का नाम गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में शामिल हो गया।रामविलास पासवान नाम सारे देश के लोगों ने 1977 के चुनाव के बाद सुना। ख़बर यह थी कि बिहार की एक सीट पर किसी नेता ने इतने ज़्यादा अंतर से चुनाव जीता है। हालांकि राम विलास पासवान इसके आठ साल पहले ही विधायक का चुनाव जीत चुके थे।बिहार पुलिस की नौकरी छोड़कर राजनीति में उतरे पासवान ने पहली बार वर्ष 1969 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर अलौली सुरक्षित विधानसभा सीट से चुनाव जीता और यहीं से उनके राजनीतिक जीवन की दिशा निर्धारित हो गई। वर्ष 1977 की जीत ने रामविलास पासवान को राष्ट्रीय नेता बना दिया। कभी सूट-बूट वाले दलित नेता रामविलास पासवान विश्वनाथ प्रताप सिंह, एचडी देवेगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री रहे। वह नौ बार सांसद और राज्यसभा सांसद भी रहे।

राम विलास पासवान पहले से ही भांप लेते थे कि सियासी हवा का रुख किस ओर है, इस वजह से ही उन्हें राजनीति का मौसम विज्ञानी भी कहा जाने लगा। उन्हें यह उपाधि पूर्व मुख्य मंत्री और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने दी थी।वर्ष 2019 में श्री पासवान ने अस्वस्थता के कारण लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन उनकी सरपरस्ती में उनके अनुज भाई रामचंद्र पासवान,पशुपति कुमार पारस और पुत्र चिराग पासवान ने जीत हासिल की। राम विलास पासवान अपरोक्ष रूप से चुनाव में थे।रामविलास पासवान कोई चेहरा नहीं, बल्कि बिहार की राजनीति के एक ऐसे ब्रांड थे, जिसकी यूएसपी कभी खत्म नहीं हुई। कोई भी गठबंधन हो, रामविलास पासवान का सिक्का हमेशा जीत की इबारत लिखता रहा, लेकिन इस बार के चुनाव में उनकी कमीं जरूर महसूस होगी।

समाजवाद वाली राजनीति के जरिए जनता के बीच अलग पहचान बनाने वाले शरद यादव ने अपना पहला लोकसभा चुनाव वर्ष 1974 में जबलपुर से जीता था। उस वक्त लोकनायक जयप्रकाश नारायण उर्फ जेपी आंदोलन चरम पर था। जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के गोल्ड मेडलिस्ट रहे शरद यादव भी उस आंदोलन से जुड़े हुए थे। उस वक्त शरद यादव जबलपुर विश्वविद्यालय के छात्रसंघ अध्यक्ष थे। जबलपुर लोकसभा सीट कांग्रेस नेता सेठ गोविंददास के निधन से खाली हो गई थी और 1974 में वहां उपचुनाव कराया गया। जयप्रकाश नारायण ने शरद यादव को जबलपुर उपचुनाव लड़ने के लिए कहा। वे तैयार हो गए। वहीं, कांग्रेस ने सेठ गोविंददास के बेटे रविमोहन दास को टिकट दिया।27 साल के युवा नेता शरद यादव ने कांग्रेस के गढ़ जबलपुर को ढ़हा दिया और उपचुनाव जीत कर संसद में शानदार एंट्री मारी। इसके बाद शरद यादव वर्ष 1977 में भी जबलपुर सीट से जीते। शरद यादव 1986 में पहली बार राज्यसभा सांसद चुने गए। शरद यादव ने वर्ष 1989 के आम चुनाव में उत्तर प्रदेश की बदायूं सीट जीती। शरद यादव बाद में उत्तर प्रदेश छोड़कर बिहार आ गये।उन्होंने अपने लोकसभा चुनाव क्षेत्र मधेपुरा चुना, जहां यादव बहुसंख्यक हैं। वहां यह नारा मशहूर रहा है’ ‘रोम पोप का, मधेपुरा गोप का’।देश की राजनीति को प्रभावित करने वाले मंडल मसीहा के नाम से प्रसिद्ध शरद यादव मधेपुरा से चार बार 1991,1996 वर्ष 1999 और वर्ष 2009 में सांसद बने।शरद यादव, अटल बिहारी वाजपेयी एवं वीपी सिंह सरकार में कैबिनेट मंत्री भी रहे।शरद यादव संभवतः भारत के पहले ऐसे राजनेता हैं जो तीन राज्यों मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार से लोकसभा के सदस्य के लिए चुने गए थे। शरद यादव चार बार राज्यसभा सांसद बने। शरद यादव जनता दल और जनता दल यूनाईटेड (जयू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष के साथ ही राजग के संयोजक भी रहे।वर्ष 2019 में शरद यादव ने मधेपुरा संसदीय सीट से अंतिम बार चुनाव लड़ा, जहां उन्हें हार का सामना करन पड़ा। शरद यादव का क़रीब 50 साल का समाजवादी राजनीति का सफ़र अब थम गया है।

कर्पूरी ठाकुर के अनुयायी, ठेठ, सादगी, ईमानदारी की प्रतिमूर्ति, जमीनी और ज्ञानी नेता रघुवंश प्रसाद सिंह उर्फ रघुवंश बाबू ने अपना राजनीतिक सफर जेपी आंदोलन में शुरू किया। वर्ष 1973 में उन्‍हें संयुक्‍त सोशलिस्‍ट पार्टी का सचिव नियुक्त किया गया। शिक्षा से गणितज्ञ, डॉक्टरेट के उपाधिधारी रघुवंश बाबू ने 1977 में अपने राजनैतिक करियर को धार दी थी। वर्ष 1977 में वह पहली बार बेलसंड के विधायक बने और बाद में बिहार में कर्पूरी ठाकुर सरकार में मंत्री भी बने। इसके बाद से रघुवंश प्रसाद सिंह ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वर्ष 1996 में लालू यादव के कहने पर रघुवंश प्रसाद सिंह वैशाली संसदीय सीट से लोकसभा चुनाव लड़कर पहली बार संसद पहुंचे। इसके बाद के चार चुनाव 1998, 1999, 2004 और 2009 में रघुवंश प्रसाद सिंह वैशाली से जीतकर लोकसभा गए। रघुवंश प्रसाद सिंह केंद्र सरकार में भी तीन बार केंद्रीय मंत्री बने। उन्हें मनरेगा को आधुनिक ढांचा देने का शिल्पी माना जाता है। रघुवंश प्रसाद सिंह ने अंतिम बार वर्ष 2019 में वैशाली से चुनाव लड़ा जहां उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा।कई राजनेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे लेकिन दुधिया सफेद खद्द के कपड़े के शौकीन रघुवंश बाबू पर एक भी छींटा नहीं लग पाया। 32 साल तक लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक जीवन में सारथी रहे रघुवंश प्रसाद सिंह ने वर्ष 2020 में बिहार विधानसभा के पूर्व 10 दिसंबर 2020 को राजद से इस्तीफा दे दिया। रघुवंश प्रसाद सिंह ने लालू प्रसाद को भेजे गये पत्र में लिखा था,जननायक कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद 32 वर्षों तक आपके पीठ पीछे खड़ा रहा, लेकिन अब नहीं।पार्टी के नेता, कार्यकर्ताओं और आमजन ने बड़ा स्नेह दिया, मुझे क्षमा करें। हालांकि, यह भी तथ्‍य है कि लालू प्रसाद यादव ने रघुवंश प्रसाद सिंह के इस्‍तीफा को स्‍वीकार नहीं किया। लालू प्रसाद यादव इससे पहले उन्हें मना पाते उन्होंने 13 दिसंबर 2020 को दुनिया को अलविदा कह दिया। जब रघुवंश प्रसाद सिंहके निधन की ख़बर आई तो लालू प्रसाद यादव ने श्रद्धांजलि देते हुए ट्वीट किया, “प्रिय रघुवंश बाबू! ये आपने क्या किया? मैनें परसों ही आपसे कहा था आप कहीं नहीं जा रहे हैं. लेकिन आप इतनी दूर चले गए. नि:शब्द हूं. दुःखी हूँ. बहुत याद आएंगे।

कहलगांव अनुमंडल के धुआवै गांव निवासी सदानंद सिंह ने कांग्रेस से अपनी राजनीति शुरू की। जीवन के अंतिम क्षण तक वे कांग्रेसी ही रहे। वर्ष 1969 के चुनाव में सदानंद सिंह पहली बार कहलगांव के विधायक बने। इसके बाद सदानंद सिंह कहलगांव को कांग्रेस का अभेद्य गढ़ बना दिया। वर्ष 1969 से 2015 तक लगातार 12 बार कहलगांव सीट से चुनाव लड़े और नौ बार जीते। बिहार विधानसभा चुनाव में सबसे अधिक नौ बार चुनाव जीतने का रिकार्ड कांग्रेसी राजनेता सदानंद सिंह के नाम दर्ज है।सदानंद सिंह ने कभी भी अपना चुनाव क्षेत्र नहीं बदला।सदानंद सिंह विधानसभा अध्यक्ष के अलावा बिहार सरकार में कई विभागों के मंत्री और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। 1977 की जनता लहर में भी सिंह ने कहलगांव सीट से जीत दर्ज की थी। 1985 में कांग्रेस ने उनका टिकट काट दिया तो वह कहलगांव से निर्दलीय चुनाव लड़े और जीते।समर्थकों के बीच ‘सदानंद दा’ के नाम से मशहूर और खांटी कांग्रेसी नेता की आम लोगों के बीच लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिस समय पूरे प्रदेश में कांग्रेस विरोधी लहर चल रही थी, उसी समय भी वे चुनाव जीतने में सफल रहे। सदानंद सिंह बिहार के उन गिने-चुने नेताओं में से एक रहे जिनके राजनीतिक करियर की शुरुआत भी कांग्रेस के साथ हुई और अंत भी इसी पार्टी में हुआ। 1990 के दौर में बिहार में जब कांग्रेस का का पतन शुरू हुआ तब खांटी माने जाते रहे कांग्रेसी भी पाला बदलकर राजद,जदयू या भाजपा में में चले गए, लेकिन सदानंद सिंह पार्टी के प्रति अपनी नैतिकता को बनाए रखते हुए उसी में बने रहे।श्री सिंह ने वर्ष 2009 में भागलपुर संसदीय सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें हार मिली।वर्ष 2020 में हुए ब‍िहार विधानसभा चुनाव में सदानंद सिंह ने कहलगांव से अपने पुत्र शुभानंद मुकेश को कांग्रेस से ट‍िकट द‍िलाया, हालांक‍ि वे पराज‍ित हो गये।

बिहार लोकसभा चुनाव से पूर्व कई दिग्गज नेताओं ने अपने आप को राजनीति से अलग कर लिया, वहीं कुछ को चुनावी बिसात पर उनके हीं दल के ‘राजा’ने मात दे दी। देश के प्रख्यात दलित नेता और उपप्रधानमंत्री रहे बाबू जगजीवन राम की पुत्री मीरा कुमार ने इस बार का लोकसभा चुनाव लड़ने से मना कर दिया है।सासाराम को पहले शाहाबाद नाम से जाना जाता था। यहां से बाबू जगजीवन राम लगातार आठ बार जीते।जाने-माने राजनीतिक परिवार से आने के बावजूद मीरा कुमार का नाता शुरू में राजनीति से नहीं था। मीरा कुमार पढ़ाई में मेधावी थीं। उनका चयन भारतीय विदेश सेवा में हो गया। देश से बाहर स्पेन, मॉरीशस, यूनाइटेड किंगडम में काम कीं, लेकिन इसमें मन नहीं लगा। आखिरकार उन्होंने नौकरी छोड़ी और राजनीति का रुख किया। मीरा कुमार ने पहला चुनाव वर्ष 1985 में उत्तर प्रदेश की बिजनौर सुरक्षित सीट से कांग्रेस के टिकट पर लड़ा। इस सीट से 1984 में कांग्रेस के गिरधारी लाल जीते थे। उनके निधन के चलते हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने मीरा कुमार और लोकदल ने रामविलास पासवान को मैदान में उतारा था।यह नारा चुनाव में काफी पापुलर हुआ, धरती गूंजे आसमान…रामविलास पासवान। बिजनौर का उपचुनाव यादगार रहा था। इस चुनाव में मीरा कुमार ने राम विलास पासवान को हराकर अपना राजनैतिक सफर शुरू किया। इस उपचुनाव में मायावती ने भी अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत की थी।निर्दलीय प्रत्याशी मायावती तीसरे नंबर पर रही। इसके बाद मीरा कुमार ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और नई ऊंचाइयां छूती चली गईं।मीरा कुमार ने इसके बाद 1996 और 1998 में दिल्ली की करोलबाग सीट से सांसद बनीं। इससे पूर्व मीरा कुमार ने वर्ष 1989 और 1991 में सासाराम सीट से चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा। 2004 और वर्ष 2009 में बिहार की सासाराम सीट से मीरा कुमार ने लोकसभा चुनाव जीता। हालांकि इसके बाद मोदी लहर मे मीरा कुमार को वर्ष 2014 और 2019 में सासाराम सीट से हार का सामना करना पड़ा। मीरा कुमार को देश की पहली महिला लोकसभा अध्यक्ष बनने गौरव मिला है। मीरा कुमारी संभवत‘ देश की इकलौती महिला नेत्री हैं जिन्हें उत्तर प्रदेश , दिल्ली और बिहार जैसे तीन तीन राज्यों से लोकसभा पहुंचने का गौरव हासिल है।

बक्सर सीट से वर्ष 2014 और वर्ष 2019 में भाजपा के टिकट पर जीते केन्द्रीय राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे इस बार के चुनाव में बेटिकट हो गये हैं।भागलपुर विधानसभा क्षेत्र से अश्विनी कुमार चौबे ने पांच बार चुनाव जीता है। अश्विनी कुमार चौबे बक्सर सीट से टिकट नहीं मिलने पर कुछ नाराज हैं, संभवत:इस बार के चुनाव में वह नजर नहीं आयेंगे। बिहार में अबतक हुये लोकसभा चुनाव में चार बार जीतने वाली रमा देवी को भाजपा ने इस बार के चुनाव में बेटिकट कर दिया है। सासराम (सु) सीट पर भाजपा के टिकट पर लगातार दो बार से जीत रहे छेदी पासवान भी बेटिकट कर दिये गये हैं। राम विलास पासवान के अनुज रामचंद्र पासवान ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया है, वहीं पशुपति कुमार पारस इस बार का चुनाव नहीं लड़ रहे हैं।जेपी का प्रतिनिधित्व करने वाले अब्दुल बारी सिद्दीकी भी इस बार के लोकसभा चुनाव में नहीं नजर आयेंगे। वर्ष 1977 में बहेरा विधानसभा क्षेत्र से श्री सिद्दिकी ने पहली बार जीत हासिल की । श्री सिद्दीकी ने बिहार विधान सभा के सदस्य के रूप में सात बार जीत हासिल की है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में श्री सिद्दिकी को दरभंगा संसदीय सीट पर हार का सामना करना पड़ा।

बिहारी बाबू के नाम से मशहूर शत्रुघ्न सिन्हा बिहार ही नहीं पूरे देश में भीड़ जुटाने वाले नेता के रूप में जाने जाते हैं। बॉलीवुड में शानदार पारी खेलने के बाद राजनीति में नाबाद पारी खेल रहे शत्रुघ्न सिन्हा का अब तक का सफर काफी उतार चढ़ाव भरा रहा। 1991 के लोकसभा चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी गांधीनगर और नई दिल्ली दो सीटों से चुनाव जीते। लालकृष्ण आडवाणी ने बॉलीवुड के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना को नई दिल्ली सीट पर चुनाव हराया।जब एक सीट छोड़ने की बात आई तो आडवाणी ने गांधीनगर को अपने पास रखा और 1992 में नई दिल्ली के उपचुनाव में शत्रुघ्न सिन्हा को उतार दिया। कांग्रेस ने फिर से राजेश खन्ना को ही चुनाव में उतारा।शत्रुध्न सिन्हा इस चुनाव में पराजित हो गये।इस तरह, अपने पहले चुनाव में शत्रुघ्न सिन्हा को हार का मुंह देखना पड़ा। शत्रुध्न सिन्हा केन्द्र सरकार में मंत्री और राज्यसभा सांसद भी रहे।

वर्ष 2014 और वर्ष 2019 में शत्रुध्न सिन्हा ने भाजपा के टिकट पर पटनासाहिब सीट से लोकसभा का चुनाव जीता। करीब 28 साल तक भाजपा के साथ रहने वाले शत्रुघ्न सिन्हा 2019 के आम चुनावों से पहले कांग्रेस में शामिल हो गये। शत्रुध्न सिन्हा ने पटनसाहिब सीट पर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा, जहां उन्हें भाजपा के रवि शंकर प्रसाद से हार का सामनाा करना पड़ा। इसके बाद शत्रुध्न सिन्हा ने पश्चिम बंगाल की आसनसोल सीट पर वर्ष 2022 में हुये उपचुनाव में तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर जीत हासिल की। ‘शॉटगन’ श्री सिन्हा इस बार भी आसनसोल सीट से तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर चुनावी रणभूमि में उतरेंगे।

बिहार की सियासी जमीं पर अपनी सशक्त पहचान बनाने वाले कई दिग्गज राजनेता इस लोकसभा चुनाव में नहीं दिखेंगे। इनके नाम और काम पर वोट की फसल भले काटी जाएगी, लेकिन मतदाताओं को इनकी कमी खलेगी। वे ऐसे राजनेता थे, जिनको देखने और सुनने के बाद मतदाता अपना इरादा तक बदल देते थे। ये दिग्गज सियासी हवा का रुख मोड़ने का माद्दा रखते थे। यही वजह है कि चुनाव मैदान में उतरने वाले उम्मीदवार उनके नाम, और काम के जरिए सियासी फसल लहलहाने की कोशिश करते दिखेंगे। हालांकि उनकी अनुपस्थिति में यह सब कितना कारगर होगा, यह तो वक्त बताएगा।

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